पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३८९

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धुंधरित धूम-धार-धुरवा निवारि वह, तपित-त्रिताप - ही - हिमाकर उदै भयौ । कहै रतनाकर त्यौं जड़ता बिदारि वह, सुरस-सुसोलता-सुधाकर उदै भयो ।। बिरह-विषाद-तम-ताम निरवारि बह, चखनि-चकार-चंद्रिकाकर उदै भयो। गोरज-समूह-घन-पटल उघारि वह, गोप - कुल - कुमुद - निसाकर उदै भयौ ॥१५९॥ तीर जनुना के स्याम सुंदर सुनान कहा, आनद निधान बीर बाँसुरी बजावै है। कहै रतनाकर स्वरूप सुखमा पै नैन, नाम-रस-रोचक पै रसना रचावै है॥ नासा मृदु बास पै सुतान-माधुरी पै कान, परस उमंग मृदु अंग पै लुभाव है। माना मन-मंदिर-प्रबेस-कामना सौ काम, पाँचौ पौरिया काँ आस-आसव छकावै है ॥१६॥ देखन न पैयत अघाइ ब्रज-भूप रूप, मन की मसैं मन ही मैं रुलि जाति हैं। कहै रतनाकर मिलै जो कहूँ औसर हूँ, तो पै ये अनौसर अनीत तुलि जाति हैं ।