पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३९

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, सुभ अवसर जिय जानि मानि मन मोद महाई, केती मिलि स्रुति-धारिनि की ज्यौनार जमाई । कोऊ पखावज-कलस लियै सनमान-जतावति, परन-नीर लै जगत-पीर साँ हाथ धुवावति ।। ५७ ॥ कोऊ तानपूरा की लै कर माहि सुराही, मधुर सुखद सुर-सरबत मंजुल देति उमाही । कोउ काँधे पर लिए बीन-बहँगी बर नारी, षट-रस ब्यंजन रागनि के परसति रुचिकारी ॥ ५८॥ लिए सरंगी की किसती कोऊ सुकुमारी, मृदु मोदक, कतरी काटति ताननि की ढारी। देति ताल-चटनी कोउ लै मंजीर-कटोरी, सकल सवाद सवाँरन के हित आनँद-बोरी ॥ ५९॥ लै मुहचंग उमंग भरी कोउ बिनय सुनावति, जेवहु जेवहु जैवहु जैवहु की धुनि लावति । कोऊ पाकसासन-समाज पर ताल बजावति, कोउ सुर-बनितनि काँ चट चुटकिनि माँझ उड़ावति॥६० दोउ दिसि द्वै द्वै धन्य जन्म जिनके सुर मानत, सेवति रुचि अनुसार भाव भृकुटी सौं जानत । लखति गूढ़ अति भाव सुनत आपुस की बातें, लहति स्रौन-दृग-लाहु लाडिली-लाल-कृपा ते ॥ ६१ ॥