पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ठानति जिती हाँ ठान भरि दृग देखन को, सौं होत ते सब डगरि डुलि जाति हैं। दुलि दुलि जाति हैं सँकोचनि प्रतच्छ पेखि, देखें सपने मैं ये निमेषै खुलि जाति हैं ॥१६॥ जिनके चरित्र नै बखानि रसखानि आनि, चित्रहूँ दिखाया जैसी और चित्रकारी ना । कहै रतनाकर लख्या सो सपने मैं सखी, वैसा कहूँ साँच ही स्वरूप रुचिकारी ना ।। लागी उर लागन ललाइ त्यहाँ जागी हाय, लागी तबही ते पल पलक हमारी ना। ऐसे समै घात कै सिधारी जो नकारी नीद, ताते दईमारी फेरि पलट सिधारी ना ।।१६२॥ मोहैं मनमोहन अमोही नै कु जोहैं जाहि, द्रवि दृग ढारै बारि भए मतवारे हैं। कहै रतनाकर झवात मुरझाए जात, उठत अमाप तन ताप के तवारे हैं । पावत न जोग उपयोग उनकौँ है कछु, पारे मुरचात ते निषंग मैं बिचारे हैं। सान सुरमे की चढ़ि लोचन तिहारे जुग, पाँचौ वान काम के निकाम करि डारे हैं ॥१६३॥