पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३९२

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झलमल अंगनि की बमन सुरंगनि की, झलकन लागी झुकि झमि झमकाई मैं । आई नरु-रंध्रनि सौं मानहु जुन्हाई इनि, आनन जुन्हाई लसी सरद जुन्हाई मैं ॥१६॥ तौ न जानैं कौन छैल के छकी हौ रंग, डोलति हौ ताही की उमंग अंग गाँसी है। क है रतनाकर मुकुट बनमाल धरे, मृगाद-लेप करे ताकी प्रतिमा सी है। दरपन मैं सो स्वांग देखन हमारे धाम, आवति सुरै हाय कबहूँ बिनासी है। कोऊ जौ अदेखी देखिहे तो लेखि है धौ कहा, हाँसी परि जाइगी हमारे गएँ फांसी है ॥१६७॥ काम-दाह अंतर निरंतर जगीयै रहै, आठौं जाम जीभ नाम रटत सुखाई है । कहै रतनाकर रहयौ जो घट जीवन सो, सोखे लेति उघटि उसास-अधिकाई है ॥ तलफत सो तौ लखि तोहि रस-पास लाइ, तेरें तन तनक न दीसति द्रवाई है। मंजु मुकता लौँ तन पानिप भयौ तौ कहा, जौ पैरंच कान्ह की तृषा न सियराई है ॥१६८॥