पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३९३

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गंगा-लहरी मंगलाचरण कहत विधाता सौं बिलखि जमराज भयौ, अखिल अकाज है हमारी राजधानी को । सुरसरि दीनी ढारि भूप के भुलावे माहि, कोन्यौ नाहि नैं कुहूँ विचार हित-हानी को ।। निज मरजाद पै कछू तौ ध्यान दीजै नाथ, कीजै इमि प्रगट प्रभाव बर बानी को। पा. नर नारकी न रंचक उचारि क्याँहूँ, गंगा को गकार श्री चकार चक्रपानी कौ ॥१॥ .