पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३९४

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जद्यपि हमारे पाप-पुंज अति घाती तऊ, जनम जनम के सँघाती निरधारै तू । कहै रतनाकर ममात इमि मात गंग, तारौं तिन्हैं नासन के ढंग ना बिचारै तू ॥ काक करै कोकिल बलाक कलहंस करै, आक ढाक जैसैं सुरतरु कै सँवारै तू । त्याँही पलटाइ काय तिन पै लगाइ छाप, पुन्यनि के कलित कलाप करि डारै तू ॥२॥ साजि फेरि बसन बिभूषन अदूषन चारु सक चंदन सुगंध सरसैहैं हम । हुलसि हिये मैं गुनि कहति गिरा यौँ पुनि, बीना-धुनि-संग राग रंग भरयौ गैहैं हम ॥ कोन्ही करतूत जो कपूतनि अपूत ताका, प्राच्छित कै धूत है बहुरि छबि छैहैं हम । बैठि के रसीली रसना पै रतनाकर की, पैठि के उमगि गंग-धार मैं नहेहैं हम ॥३॥ बोधि बुधि विधि के कमंडल उठावतही, धाक सुरधुनि की धंसी यौँ घट-घट मैं । कहै रतनाकर सुरासुर ससंक सबै, बिबस बिलोकत लिखे से चित्र-पट मैं ॥