पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३९५

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लोकपाल दौरन दसौं दिसि हहरि लागे, हरि लागे हेरन सुपात वर बट मैं । खसन गिरीस लागे त्रसन नदीस लागे, ईस लागे कसन फनीस कटि-तट मैं ॥४॥ विधि के कमंडल तें निकसि उमंडि धाइ, आइ कै खमंडल मैं खल-बल डार है। कहै रतनाकर पुरंदरपुरी मैं पुनि, अति उदबेग वेग-धमक पसारै है। तमकि त्रिलोक के त्रितापहि बहाइ बेगि, बाड़व बनाइ बरुनालय मैं पार है। ताही की उतंग ज्वाल-मालनि सौं गंग फेरि, पातक अपार के अगार जारि डार है ॥५॥ उड़त फुहारन को तारन-प्रभाव पेखि, जम हिय हारे मनौ मारे करकनि के। चित्र से चकित चित्रगुप्त चपि चाहि रहे, बेधे जात मंडल अखंड अरकनि के॥ गंग-बीट छटकि परै न कहूँ आनि इतै, दूत इमि तानत वितान तरकनि के। भागे जित तित अभागे भीति-पागे सबै, लागे दौरि दारि देन द्वार नरकनि के॥६॥