पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/३९६

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फाति फुही जो फैलि छवति अकास माहि, तिनके बिलास की बिकास इमि भाव है कहै रतनाकर रतन सब ही को संग, तिनके प्रसंग मैं सुढंग छबि छावै है ॥ मानौ हरि राग गंग निखिल नहैयनि के, रंग रंग रेलि मंजु मिसिल लगा है। पुनि सखि जमुना-पिता का उपहार-रूप, करि मनुहार मनि-हार पहिरावै है ॥७॥ संभु की जटा त कढ़ि चंद की छटा सी फैलि, हिम के पटा पै प्रभा-पुंजनि पसारै है। कहै रतनाकर सिमिट चहुँघा त पुनि, छोटे-बड़े सातनि के गोत है ढरार है॥ मिलि मिलि सातनि तँ नारे बहु बेगि बनै, अपार पुनि घोर रोर पारै है। सगर-कुमारनि के तारन कौं धावा किए, मानहु भगीरथ को पुन्य ललकार है॥८॥ धार है अस्तुति-बिधान गान करत बिमान-चढ़े, देवनि की दिव्य छटा छहरति आवै है। कहै रतनाकर त्यौँ दूरि दूरि हो रौं दुरी, जम की जमाति हेरि हहरति आवै है।