पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४

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प्रस्तावना - विगत वर्ष इन्हीं दिनों जब "रत्नाकर" जी के स्वास्थ्य-समाचार की प्रतीक्षा करते हुए हरिद्वार से उनके स्वर्गवासी होने का तार मिला, तब मर्माहत होकर भी एक क्षणिक कल्पना के प्रकाश में हमने देखा कि हमारे कविमित्र के निधन से हरिद्वार का रूढ़िबंधन छूट गया है और गंगावतरण की पंक्ति-“करि हरिद्वार को अति सुगम द्वार अगम हरिलोक कौ” सार्थक हो गई है। रत्नाकर में हरि का निवास कहा जाता है। तो उनके द्वार पर जगन्नाथदास की यह सद्गति स्वाभाविक ही हुई। "भाव कुभाव अनख आलसहू" नाम लेते ही जब : दिशाएँ मंगलमयी हो जाती हैं, तब रत्नाकर जी को यह सिद्धि सुलभ ही समझनी चाहिए। नास्तिकता और नवीनता के इस अग्रगामी युग में यह कवि जिस आशा और विश्वास के साथ पुरानी ही तानें छेड़ने में लगा रहा, उसका प्रतिफल इसे अवश्य ही मिलेगा। इसने हमें पहले के सुने, पर भूलते हुए, गान फिर से गाकर सुनाए, पिछली याद दिलायी और हमारे विस्मृत स्वर का संधान किया। इसका यह पुरस्कार कम नहीं है। यह काशीवासी रत्नाकर पुरातन ब्रजजीवन की स्वच्छ भावनाधारा में स्नात, एकाधार में भाषा और काव्य-शास्त्र का पंडित, कलाविद् और भक्त हो गया है। अपने कतिपय श्रेष्ठ सहयोगियों और समकालीनों में, जो ब्रजभाषा-साहित्य का श्रृंगार कर रहे थे, रत्नाकर की विशिष्ट मर्यादा माननी पड़ेगी। भारतेंदु हरिश्चंद्र में अधिक प्रतिभा थी; किंतु उन्हें अवसर न मिला। कविरत्न सत्यनारायण अधिक ऊँचे दरजे के भावुक और गायक थे; किंतु उनका न तो इतना अध्ययन था और न उनमें इतनी कला-कुशलता थी। श्रीधर पाठक ब्रजभाषा से अधिक खड़ी बोली के ही आचार्य हुए। वर्तमान और जीवित कवियों में कोई ऐसा नहीं जो आजीवन इनकी धाक न मानता रहा हो । विक्रम की बीसवीं शताब्दी अब समाप्त हो रही है। अतः जब आगामी शताब्दी के आरंभ में पुराने कवियों और उनकी कृतियों की जाँच-पड़ताल की जायगी, तब रत्नाकर को इस क्षेत्र में शीर्ष स्थान देते हुए, आशा है, किसी को कुछ भी असमंजस न होगी। परंतु यह शीर्ष स्थान नवीन प्रासाद-निर्माण का पुरस्कार नहीं है, केवल पुरानी पच्चीकारी का पारिश्रमिक है ।(पुरातन और नूतन का यह अंतर समझ लेना ही रत्नाकर का यथार्थ मूल्य आँकना होगा। भाषा तो भाषा ही है, चाहे वह ब्रज हो या खड़ी बोली। कवि की अभिव्यक्ति के लिए हर एक भाषा उपयुक्त हो सकती है। वह तो साधन मात्र है, साध्य नहीं। इस प्रकार की विवेचना वे ही कर सकते हैं, जो यह परिचय नहीं रखते कि भाषाओं की भी आत्मा होती है। अथवा उनके जीवन की भी एक गति होती है। प्रत्येक भाषा की प्रगति का एक व्रजभाषा