पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४०

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19 एक ओर ललिता औ दूजी ओर बिसाखा, प्रेम-पदारथ-देनहारि सुर-तरु की साखा । दंपति-सुख-संपति-अनूप-निधि की रखवारिनि, कृपा-कलित मुसक्यानि मंद की नित अधिकारिनि॥६२॥ जिनको कछु न कहाइ जदपि सुति सेस बखानैं, चहन लहन अरु कहल आपुनी आपुहिँ जानें । काछि कछौटा बाँधि फे पटुली पर ठाढ़ी, लंक लचाइ देति मचकी दुहरी अति गाढ़ी ॥ ६३ ॥ बढ़ि झाँटा अति तरल भए लाग्यौ पट फहरन, लग्यौ पाट द्रुम-चेलिनि के झुंडनि मैं झहरन । पल्लव पुहुप प्रतेक पैाँ मैं कछु लगि आवत, परि परि भूमि पाँबड़े लौँ परमादर पावत ॥ ६४ ॥ कबहुँ लतनि मैं लगि कोउ अंग उधारति सारी, चाँकि चकाइ तुरत तिहिँ सकुचि सम्हारति प्यारी। लखति लाल की ओर लाज-ल्हेसित नैननि सौं, कछु जाननि की चाह जाति जानी सैननि सौं ॥६५॥ पै उनकौँ लखि लखत ताहि दिसि मृदु मुसुकौँ हैं , कहि कछु बात बनाइ लेति करि नैन निचौहैं । तब कछु बोलि ठठोलि लाल यह ख्याल बनावत, हँसि निज ओर लखाइ लाडिलिहुँ हरखि हँसावत॥६६॥