पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४००

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आवत ही ध्यान मैं विधान तिहिँ धावन कौ, अहस अपावन को कटत करारा है। कहै रतनाकर सु ताके सिकता मैं चारु, चमकत दीन पातकीन को सितारा है। बाढ़े दिन दूनौ राति चौगुनौ प्रताप ताकी, जाकी बीचि-व्यूह चलै पढ़त पहारा है। आरा है अनूप काटिबे की पाप-डारा अरु, गंग-धुनि-धारा जम-धार कौं दुधारा है ॥१७॥ कलुष बहाइ के महान महिमंडल को, अरक-लला के सब नरक पटाए देति । कहै रतनाकर त्यौँ करम-बगीची-बीच, पुन्य-जल सी चि फल चारिहूँ फराए देति ॥ जमपुर-पंथिनि के पातक पथेय पोत, गंग निज तरल तरंगनि डुबाए देति । हरि हरि तीछन त्रिताप तिहुँ लोकनि के, बागर लौँ बेगि भवसागर सुखाए देति ॥१८॥ कैयौँ संभु नैन तीसरे की सदा सन्निधि सौं, सार-स्रोति स्रवति सुधाकर-सुधा की है। कहै रतनाकर कै लीक पुन्य पद्धति की, कैयौँ माँग मोतिनि सौं पूरित धरा की है।