पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४०१

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जग-जन-लाज-काज सारी कै सतोगुन की, सुघर सवारी सुभ सुकृत-कला की। कैयौं हरि-पद-अरविंद--करंद मंजु, महिमा अपार धार सुर-सरिता की है ॥१९॥ विधि हरि हर की न जातो असुहानी विधि, दीन बितहीन पापलीन तरसैवे की। कहै रतनाकर त्यौं सुकृति-समाज लरखें, टरती न देवराज-टेव अरसैबे की । सुरधुनि-धार जो न धावती धरा पै धारि, धुनि सुख सुग्वमा अपार सरसैबे की। पावते कहाँ तो सत्व-स्वात-परजन्य अन्य, त्रिभुवन-धन्य जुक्ति मुक्ति बरसैबे की !!२०॥ पानी को सुढार किधौं पावक की झार लसै, धार को तिहारी सार समुझि न आवै है। कहै रतनाकर सुभाव लच्छ लच्छनि को, राबरौ प्रभाव लै बिलच्छन बनावै है ॥ सुकृत फरावै झरसावै झार दुःकृत को, ताप सियरावै जन-पापहि जरावे है। गंग तव नोखौ ढंग जगत उजागर है, सागर भरावै भवसागर सुखावै है ॥२१॥