पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४०४

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लोटि-लोटि लेत सुख कलित कछारनि को, सुर-तरु डारनि का गौरव गहै नहीं। कहै रतनाकर त्यौँ काँकर श्री साँक चुनि, चारु मुकता फल पै नैं कु उमहै नहीं। हेम हंस होन की न राखत हिये मैं हाँस, नंदन के कोकिल कौं कलित कहै नहीं। गंग-जल तोषि दोषि सुकृत सुधासन को, काक पाकसासन को प्रासन चहै नहीं ॥२७॥ जाइ जमराज सौं पुकारे जमदूत सुनौ, साहिबी तिहारी अब लाजतै रहति है। पापिनि की मंडली उमंडि मेदि मंडित अखंडल के मंडल लौँ राजतै रहित है। सापी परतापी औ सुरापी हू न आवै हाथ, तिनहूँ पै छम-छत्र छाजतै रहति है। दंगा करैं हमसौं हमेस हठि भुंगी-गन, गंगा संभु-सोस-चढ़ी गाजतै रहति है ॥२८॥ ऐसे राज-काज प्रभुता सौं बस आए बाज, आजलौँ भई सो भई हम ना भुरैहैं अब । कहै रतनाकर-बिहारी सौं पुकारे जम, हर-गन गब्बर सौं नाहि अरुझैहै अब ॥