पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४१०

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त्रिगुन त्रिलोक के गुननि पर पानी फेरि, एक गुन आपनी अनूपम वगारे देति । रंग जमराज को रहै न सुरराज ही को, दोऊ पुर गंग एक संग ही उजारे देति ॥४४॥ मृग कौँ मृगांक मृग मंजुल रचावे अरु, सिंहवाहिनी को सिंह सिंहहि सजाव है। ताल कौं उताल रतनाकर विसाल कर, देव-करि करि करि-निकर पठावै है ॥ नंदीगन निपट अनंदी कर बैलनि काँ, न्हाइ कढ़े छैलनि को वाहन बँगवै है। मानुष को संकर करत असंग कहा, गंग गिरि-कंकर का संकर बनावै है॥४५|| बासुकी बरेत गिरि मंदर मथानी करि, ठानी इमि जाती रतनाकर मथाई क्यौं । होत्यौ राहु बंचक क्यों रंचक से लाहु काज, होती आज लौँ यौं चंद मर की गहाई क्यों ॥ सुरसरि-धार पहिले ही जो पधारती तो, पारती सुरासुर लालच लराई क्यौं । पीते चित-चीते सबै आनँद अघाइ धाइ, रहती सुधा की वसुधा मैं कृपनाई क्यों ॥४६॥