पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४११

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संतत सुजान विधि बेद-गान-आनंद मैं, लगन लगाए यौँ मगन रहते नहीं। कहै रतनाकर सदासिव सदा ही इमि, भंग की तरंग मैं उमंग गहते नहीं । आठौँ जाम रहते रमेश काम ही मैं लगे, सेस पै निमेष बिसराम लहते नहीं। पतित-उधारन के दोष-दुख-टारन के, जो पै गंग-धार मैं अधार चहते नहीं ॥४७॥ बसि बसि जात जे परोस मैं तिहारे मात, बात तिनकी तौ कछु बनत उचारै ना । कहै रतनाकर कहै को पास आवन की, ते पुनि पलटि पुहुमी पै पग धाएँ ना ॥ सकपक है कै सब चकपक चाहि रहे, ऐसी दसा देखि कै निमेष सुर पाएँ ना। फेरि जग आवन को करि कै बिचार भयौ, कोऊ अवतार गंग-धार के किनारें ना ॥४८॥ सुरधुनि-धार के उजागर भए तैं भूमि, आई भवसागर मैं भूरि भरुवाई है। गुन गरुवाई और भुवन त्रयोदस की, आनि याके पानिप मैं सिमिटि समाई है ।।