पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४१४

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श्रीविष्णु-लहरी पाएँ और भाव ना प्रभाव मन माहिँ नैं कु, एक तव भावना स्वभाव लौ सगी रहै। और धारनाहूँ की विधूसरित धारा माहि, रस-रतनाकर-तरंग उमगी रहै॥ आवै बात रंभा-अधरानि औ सुधाहू की न, ऐसी मुख स्याम-नाम-माधुरी पगी रहै प्रेम-रस रसत सदाई रहै कोयनि सौं, रावरी लुनाई इमि लोयनि लगी रहै ॥ जाउँ जम-गाउँ जौ समेत अपराधनि के, तौ पै तिहि ठाउँ ना समाउँ उबरयो रहाँ । कहै रतनाकर पठावौ अघ-नासि जु पै, तौ पै तहाँ जाइवे की जोगता हरयो रहाँ ॥ सुकृत बिना तौ सुर-पुर मैं प्रबेस नाहि, पर तिन तैं तो नित दूर ही टरयौ रहौँ । तातै नयौ जो लौं ना निवास निरमान होइ, तो लौं तव द्वार पै अमानत परयौ रहौँ ॥