पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४१६

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एक एक पूरि अभिलाष लाख मानिनि मा. ऋद्धि सिद्धि पाँनि साँ भान भारे देति है। नाकी चूक कूक परे कान ना निहारें कहूँ, जानि यह क्लेस का निर्मम करि देति है ॥५॥ ना निहारी पद-पाथ नाथ प्रानिनि काँ, देत विन गक निहुँ लोक नै निझारी है। कहै ग्ननाकर वरि गुन-गान व्यान, भेजे देत जान कहाँ जंगम अखारी है। आदि ही साँ रचना विरंचि विसतारि हारयौ, पारयों पै न क्याँहूँ पूर पारन विचाग है। अवि उमगाइ तो अनंत है हिये सौ घाइ, सकति न पाइ कृपा पूरन पसाग है ॥३॥ सब कछु कीन्या हम निज वस ही साँ मही, कौन तुमही कॉ फेरि परवसताई है। कहै रतनाकर फलाफल रचे जो अरु, करम सुभासुभ में भिन्नता भराई है। निज रचना के उपजोग की तुम्हें जो चाह, तो न निरवाः मैं हमहूँ कठिनाई है। मान्यौ भरजाद सर्व आपनी रचाई पर, यह तो बताची कृपा कौन की बनाई है ॥ ७ ॥