पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४१८

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विसद ब्रह्मंड 4 अखंड अधिकार रहै, प्रेम-नेम-सासन दुरासनि दयौ करें। माथ पै हमारे नित नाथ-हाथ छत्र रहै, कलित कृपा को चारु चंबर ढर्यो करै ॥१०॥ ऐते बड़े नाथहूँ न हाथ करि पावे जाहि, ताको वार हाय हमवार किमि आड़ेंगे। कहै रतनाकर न हम हमता मैं प्राइ, ऐसे मन प्रवल-प्रभाइ सौ विगाड़ेंगे। निज करनी-फल के विफल सहारे कहा, रावरौ भरोसा-तरु कामद उजाड़ेंगे। छाड़ेंगे न कान्ह आप जवलों कृपा की कानि, तो लौं वानि हमहूँ कुठानि की न छाई गे ॥११॥ हारि वैठिवी हो जो उधारन के खेल माहि, तौपै रेलि पेलि एती ऊधम मचाइ क्यों । कहै रतनाकर सगाई जो हुती ना हिये, तो पै तन मन ऐती लगन लगाई क्यों ।। भाग अरु कर्म ही को धर्म राखिवो जो हुतो, तोपै धरी सीस कही सर्व-सक्तिताई क्यौं । जोपै नाथ रावरी कृपा मैं ना समाई हुती, ऐती ठकुराई ठानि ठसक बढ़ाई क्यों ॥१२॥ .