पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४१९

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कौन की बिनै पै जग जनम दियो है नाथ, कौन की रिनै पै पुनि मानुष बनायौ है । कहै रतनाकर त्यों कौन के कहे पै कही, चित सुख-चाव को सुभाव उपनायौ है॥ ऐतौ सब कीन्यौ आपनी ही मनसा सौं आप, काहू अलाप औ न चाप उकसायौ है। अब क्याँ कृपाल कृष्णा-ढार ढरिबे की बार, चाहत कछुक हाय हमसौँ कहायों है ॥१३॥ उदर विदारयौ हरिनाकुस को केहरि हैं, जन पहलाद परयौ पेंखि कठिनाई मैं । कहै रतनाकर रिषीस दुरबासा सीस, बिपति ढहाई अंबरीष की हिताई मैं ॥ विग्रह बिलोकि ग्राह निग्रह किया है धाइ, गहरु न लाई गज-उग्रह-कराई मैं । भाई तुम्हैं भक्तनि की एती पच्छताई तो पै, नाथ ना रहाई अब तब ठकुराई मैं ॥१४॥ साजे रहै साज-बाज सब मनमाने सदा, हरि के हिये सौ होति रंचहू सु न्यारी ना । कहै रतनाकर विमुख-मुखहूँ पैरंच, झलकन झाई देति सौति सुधिवारी ना ॥