पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४२

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उठी उमंग तरंग बैठि नहि सके कन्हाई, अति निहोरि कर जोरि किसारिहुँ नीठि उठाई। बहु बिधि बिनय सुनाइ खाइ हाहा बरियाई, ललिता और बिसाखा इक इक और बिठाई ॥ ७२ ॥ लियौ लपेटि फेट मैं कसि समेटि दुपटा काँ, दिया अनंगहिँ इंद्र-धनुष जनु जगत कटा कौं । अखिल तान-बाननि की बिसद निषंग बाँसुरी, दई बाँधि तिहि संग भंग जो करति पाँसुरी ॥ ७३ ॥ उनहुँ लियौ उत कटि तट उरसि छोर निज पट कौँ, मृदु मुसकाइ उचाइ निचाय नैकु चूंघट कौं। मनहुँ मानि मन माष संभु नहिँ धरयौ अंग पर, पूर्न रूप सौँ सुधा स्रवत बिधुबर अनंग पर ॥ ७४ ॥ पुनि घूमनि चुनि चारु घाँघरे की उमंग सौं, नासा अधर मरोरि हँसी रँगि अनख-रंग सौँ। मनु सुकुमारि उठाइ सकति नहि निज उछाह काँ, देति भार ताको अति सुखद सयानि नाह कौँ ॥ ७५ ॥ लियौ कछौटौ काछि चढ़ाइ कछुक इत औ उत, मुरवनि सौं रंचक उचाइ सकुचाइ सान-जुत । मनहुँ हरित घन सघन सहित-दामिनि-जुरि आए, पन्ननि के द्वै धराधरनि की संधि समाए ॥ ७६ ॥