पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४२०

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राख रुपि वैन सबकं निज माधुरी माँ, जाम को भोजवान नाकी घानवारी ना। पलो जग सजग कृपा की रखवान लहै, श्रावन की पागल है कमना विचार्ग ना ॥१५॥ . फिकिर नहीं है कछु अापन सिंप हम. प्रकृति हमारी प्रहमान चहनी नी । को रतनाकर पैरावर कावत, ताते यह हेटना तिहाग महती नहीं। याने करि साहस पुकारि के चिताए देन, रावरी कृपा जी नाथ हाथ गहती नहीं। ताप करना-निधान सान माम-सिनि की, आन भानु-अंसिनि की आज रहनी नहीं ॥१६॥ बड़े बडे आनि उपमान तव नैननि के, करत बखान जिन मान प्रतिभा की है। कहै रतनाकर हमें तो पै न जानि पर, इनकी बड़ाई में विधान समता को है ॥ एतिय लखाति औ इनायै कहि जाति वान, पलकनि बीच विस्व-चिनिज छमा की है। एक एक कोर करुना को बरुनालय है, एक एक पारावार पूरित कृपा को है ॥१॥