पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४२१

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मी जि मन मारे फिर कब लौँ तिहारे दास, आस बिन पोएं हाय कब लौं पुषी रहैं कहै रतनाकर रचाए बिना रंचक हूँ, तोष की कहाँ लौँ पढ़ी पद्धति घुषी रहैं । रावरे रुचिर करुनानंद सकेलन काँ, तुमही विचारौ जन कब लौँ दुखी रहैं । तातें बिना कारन कृपा के उदगारनि मैं, तुमहूँ अनंद लहौ हमहूँ सुखी रहैं ॥१८॥ मांगत छमा जो नाहि बूझत हमारी बात, आनन सहज मुसक्याननि भरयौ रहै। कहै रतनाकर त्यौं नैननि तैं बैननि ते, सैननि त अमित अनुग्रह ढरयौ रहै । है है किमि गिनती हमारी बिनती की हाय, याही ग्लानि मानि मन गुदरि गरयौ रहै। धसन न पावै ध्यान भान अपराधनि को, करुना-निधान को पिधान याँ परचौ रहै ॥१९॥ अनुचित उचित बिचार चित सौँ कै दूरि, रावरी कृपा को भूरि लाहु लहते सही। कहै रतनाकर रुचिर मुखचंद चारु, देखत अनंद सौँ घरीक रहते सही ॥