पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४२३

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संद-कन सारत सँभारत उसाल हूँ न, बास हू बदलि पट नील कधियाए हौ । कहै रतनाकर पकाए पच्छि-नायक की, वढ़त पुकार हूँ पार अगुवाए हौ ॥ वाएँ पंचजन्य जात बाजत बजाए बिना, दाऐं चकरात चक्र बेग यो बढ़ाए कौन जन कातर गुहार लगिवे के काज, आज इपि आतुर गुपाल उठि धाए । ॥२३॥ कोक देव टेरते कही धौं मुहँ लाइ कौन, साधन तो काहू को अराधन न कीन्यौ है। कहै रतनाकर गुनाकर बनेई रहे, ऐसौ बल बुद्धि के गुमान मन भीन्यौ है । काम के परै पै कोन नाम लै पुकारें अब, याही के मलोल मुखखालन न दीन्यौ है । हम तो गुहारयो ना अनाथ अपने कै ठाइ, धाइ पर नाथ तो सनाथ करि लीन्यौ है ॥२४॥ जानत हूँ तुमकौं अजान बनि टेरयो हाय, अब सो अजानता की ग्लानि गरिबौ परयौ । कहै रतनाकर हरांस के हरैया रंच, आँस श्री उसास हूँ सँभारि भरिबौ परयौ ।