पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४२४

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पाई श्राप पीर जो अधारता हमारी हरि, देखि के अधीर तुम्हें धीर धरिवी परयो । आप तो हमारे मनुहार कों पधारे पर, उलटी हमें ही मनुहार करिवौ पर्यो ॥२५॥ नारि गीध गनिका उधारि पहलाद आदि, वानि जो बनाई सो न कानि गहि जाइगी। कहै रतनाकर जी द्रोपदी गजेंद्र हित, धाइ श्रम साध्या साऊ साख ढहि जाइगी ।। औसर परे पै अब रंचहू कृपाल सुनौ, चूक जो परी तौ हिय हूक रहिं जाइगी। आयो कहूँ नीर जो अधीर इन नैननि तौ, एती सब साधना बृथा ही बहि जाइगी ॥२६॥ है है दसा दारुन हमारी कहा कौन भाँति, इन परपंचनि सौ रंच मन गारौ ना। कहै रतनाकर न आतुर है धीर तजौ, नीर भरे नैननि साँ कातर निहारौ ना ॥ ऐसी प्रेम-परख-प्रमा साँ हम चाहै छमा, कसक करेजें आनि कछुक उचारौ ना । सारौ ना मधुर मुसकांनि मंजु आनन तें, नाथ नै कु बाँसुरी बनाइवौ बिसारौ ना ॥२७॥