पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४२५

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कोऊ कहै लच्छ औ अलच्छ पुनि कोऊ कहै, दोऊ पच्छ-भेद तो प्रतच्छ दरसाए ना। कहै रतनाकर दुहूँ के अनुमान-बाद, बिगत-विवाद औ प्रमाद ठहराए ना ॥ देखिनि अदेखिनि की एकै दसा देखि परै, लेखि परै लेखा कछु रावरौ लिखाए ना। देख्यौ जिन नाहि ते अलच्छ कहिबोई चहैं, देख्यौ जिन तेऊ चौंधि लच्छ करि पाए ना ॥२८॥ आपही कौँ आपही न पावत हैौ हेरौं रंच, श्राप आपु आपुही मैं आपुही हिराने हो । बूंद लौँ समाने ही अपार रतनाकर मैं, पुनि रतनाकर लौँ बूंद मैं समाने हो । ऐसे कछु लच्छ कै समच्छ दसह दिसि मैं, पूरे प्रति कच्छ मैं प्रतच्छ दरसाने हो । ऐसे पै अलच्छ के जतन जोग लच्छहू सौं, काहू ज्ञान-दच्छ हू सौँ जात ना पिछाने हो ॥२९॥ मंजु मनि कामद मयूष परमानु आनि, माटी माहिँ निपट निराटी है धरत हो । कहै रतनाकर समेटि बगरावौ फेरि, याही हेर-फेर के बिनोद बिहरत हो ॥