पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४२६

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जाना तुमहीँ के वह जानन जनावी जाहि, और कौन जाने कहा कौतुक करत हो । बैठे विन काज वनिकनि लाँ लगाए साज, या घट को धान धाइ वा घट भरन है। ॥३०॥ मेरी जान साई महा चतुर सुजान जाकी, सुमति तिहारै गुन-गननि ठगी रहै । कहै रतनाकर सुधाकर सौं उज्ज्वल सो, जामै सुभ स्यामता तिहारी उमगी रहै ।। तिहिं मन-मंदिर पतंग दुरभाव नाहि, जामैं तव ज्योति की जगाजग जगी रहै । मगन न हात सा अपार भवसागर में, तव गरुता की जाहि लगन लगी रहै ॥३१॥ . गहकि गह्यो ना गुन रावरी गुनी जो गुनि, सो पुनि गहीला गुनौरव गया कहा । बँदहू लही ना तव प्रेम रतनाकर की, लाहु तो अलाहु लहि जीवन लह्यौ कहा ॥ रंचहू दयौ ना तो विछोह-दुख दाहनि जा, सो करि प्रपंच पंच पावक दयौ कहा । जान्यौ तुम्हें नाहिँ से अजान कहा जान्या आन, जान्यौ तुम्हें ताहि आन जानन रह्यौ कहा ॥३२॥