पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४२७

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साधि हैं समाधि औ अराधि हैं न ज्ञान-ध्यान, बाँधि हैं तिहारै गुन पान मुकलें हैं ना। कहै रतनाकर रहैं गे है तिहारे भृत्य, दुरभर भार भरतार को भरै हैं ना ॥ आपनी ही चिंता सौं न चैन चित रंच लहैं, जगत निकाय को प्रपंच सिा लैहैं ना। एकै घट नाघि साध सकल पुराई अब, हम तुम है कै घट-घट मैं समैहै ना ॥३३॥ परि परि प्रबल प्रपंच माहिँ पंचनि के, नाच्यौ हौं जितेक नाच तेतिक नचैया को। कहै रतनाकर पै औरै खाँच खाँची अब, तुम बिन ताके पर साँच को सँचैया को ॥ जो हम अनाथ औ न माथ पै हमारे कोऊ, तो अब हमारी कर अकर अँचैया को। जो पुनि सनाथ हैं तो तुमही बतावा नाथ, हमसे सनाथ को अनाथ लौँ तँचैया को ॥३४॥ दीन जन ही के जौ उधारन की टेक तुम्हैं , तो पै अब अधम अदीननि उधारै कौन । कहै रतनाकर बिसारै जो सुधारौ ताहि, परि इहिँ लालच मैं तुमकौँ बिसार कौन ॥