पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४२८

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तुम ना अनाथनि की मुनन पुकार सदा, नाथ होत तुमने अनाथ है पुकारे कौन । होते जो अनाथ नै उवारते इमैं हूँ नाथ, ह्म ना सनाथ की हमको उचारे कान ||३५|| जो पै कही भावना हमारी ही पानाथनि की, तो पै ताहि नाथि कै सनाथ ना बनावा क्यों। कह रतनाकर जो करम-विवाद तैपि, आदि ही माँ भाए हो न करम करावा क्यों । जो पै अवकास नाहि रंच आन पंचनि साँ, तो पै इते पंच के प्रपंचहि बढ़ावा क्यों । हम जो अनाथनि लौ इन उत टेके माथ, सौ पै तुम नाथ नाथ विस्त्र के कहावो क्यों ॥३६॥ और तौ न रंचहू बिरंचि रचना मैं कछु, पंचभूत ही को तो प्रपंच सब ठौर है। कहै रतनाकर मिलाप तिनही को भिन्न, सब जड़ जंगम में भेद-भाव डोर है ! होहि हूँ जो औरी तत्त्व तिनहूँ के स्वत्व-काज, त्यागि तुम और कोऊ ठाकुर न ठौर है । बस सब भूतनि के नाथ तुमही जौ नाथ, नाथ तो हमारे पंचभूत को न और है ॥३७॥