पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४३

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दुहुँ दिसि तैं दोउ दमकि दूमि लागे झुकि रेलन, लखि सुषमा सखिजन लागी सुखसार सकेलन । इक छबि-छकि चकि रही एक कौँ एक लखावति, "बलिहारी" कहि एक जनम-जीवन-फल पावति॥७७॥ परम समीपिनि दोऊ साधि सुर मधुर रसीले, कल कोकिलनि गुमान-गहक निज ताननि कीले । अति हुलास सौं ललकि लगी सावन सुभ गावन, अपर रागिनिनि सोइ पद पावन कौँ तरसावन ॥ ७८ ॥ बढ़ी पैंग पुनि बहुरि पाट दुम-डारनि परसत, इत उत के पल्लव उत झुकि परसन कौँ तरसत । एक ओर सौँ झमकि भूमि आवति उमंग साँ, एक ओर सौं कछु सिथिलित सी सरल ढंग सौं ॥ ७९ ॥ बैठत उठत लाडिली के लालन कछु मन कहि, ग्रीव हलाइ नचाइ भौहँ विहँसे उत कौँ चहि । चित-चोरनि चितवनि सौं चपल चितै सकुचानी, मुसक्यानी मुख मोरि मंद मन की मन जानी ॥ ८० ॥ अद्भुत अकह अनूप अनंत हाय-भायनि की, लुरति लरी की लरी भरी अति चित-चायनि की। इहि बिधि बिबिध बिनोद-मोद-मंडित दोउ झूलत, बनि बिहंग बहुरंग लखत सुर सुरपुर भूलत ॥ ८१ ॥