पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४३०

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खोटे खरे भेद औ प्रभंत धार राखी रते, विवस विचारे पै वृथा ही धाप धापी ना। थापी जहाँ भावे तुम्हें था पिया हम पै नाथ, माथ पै हमारे पाप-पुन्य-याप थापा ना ॥४०॥ कीन्या आपही तो रचि कठिन कुभाव ताका, जाको अब प्रवल प्रभाव इमि भाव है। कहै रतनाकर सुरासुर प्रसिद्ध सिद्ध. ताके परपंच सौ न कोऊ पार पावै है॥ तापै सब दोष नाथ आवत हमारे माथ, साहस के ताते यह गाथ मुख आवै है। भूल तुमहूँ का वस करि जो सुलावे में, कीजै कहा साई हमैं तुमकाँ भुलावै है ॥४१॥ होत्यौ पंचतत्व में न स्वत्व तव संचित जौ, तौ पै बुधि तिन प्रपंच पढ़ती कहा । कहै रतनाकर गुनाकर न होते तुम, तो पै भेद-भावना-विभृति बढ़ती कहा ॥ पावती न साँची जी तिवारी मनसा को मंजु, तौ पै कृति प्रकृति विचारी गढ़ती कहा । लहती प्रभाव-पौन जौ न तव पायनि को, तो पै धूरि धमकि अकास चढ़ती कहा ॥४२॥