पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४३१

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कामना-विहीन कवाँ नाम ना तिहारी लेत, वाम-धन-धाम ही की चेत चित ठाई है। कहै रतनाकर विलासनि की आस हिौँ, रहति हुलासनि की हाँस हुमसाई है। कामी कूर कुटिल कुमारग के गामी इमि, अजहूँ न मैं कु विषै-वासना सिराई है। चाहैं वह धाम जहाँ गनिका सिधाई जऊ, गाँठि मैं न दाम कछू सुकृति कमाई है ॥४३॥ केते मनु-अंतर निरंतर व्यतीत है हैं, केती चित्रगुप्त-जम आधि उटि जाइगी । कहै रतनाकर खुल्यौ जो पाप-खाता मम, तौ गनि विधाताहू की आयु खुटि जाइगी जैहै बाँचि-बूझि अबकी ना लिपि भाषा नै कु, औरै पाप-पुन्य-परिभाषा जुटि जाइगी । लाहु लहि संसय का संसय विना ही बस, पापिनि की मंडली अदंड छुटि जाइगी ॥४४॥ ए हो बीर पातकी अधीर जनि होहु सुनौ, यह ततबीर भीर रावरी भजावैगी। भाष यह आगे हैं अभागे हमसौं जो जाहि, याही एक बात घात सकल बनावैगी॥