पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४३३

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लेते गहि तूमड़ी अनेक एक की को कहै, साँसनि के सासन सौं नैकु डरते नहीं। कहै रतनाकर विधान तारिबे के पान, जेते ध्यान माहिँ तिनहूँ सौं टरते नहीं । हाथ पाय मारते विचारते उपाय सवै, एतनि मैं हमही कहा धौं तरते नहीं। होतो चित चाव जौ न रावरे कहावन को, भाँवरे भवांबुधि मैं भूलि भरते नहीं ॥४८॥ मूनौ ठाम जौ पै बिसराम करिबे कौं चहौ, तारन के काम सौँ विरामता सुहाई है। तापै रतनाकर के हिय सौ न सूनी धाम, जामै होति स्याम नाहिं पान की अवाई है ॥ वलि तो नपाई देह वाचा-बद्ध है कै इहाँ, दृग पग धारिबे की लालसा लगाई है। खोजत जो पापिनि के माथ धरिबे काँ हाथ, तोपै मम माथ नाथ कान पुन्यताई है ॥४९॥ भाव दृढ़ता के कछु भरन न पाए उर, दुख-सुख-झोरनि हिडोरनि पले गए। कहै रतनाकर प्रपंचनि के पेंच परि, साहस न संचि सके छकित छले गए।