पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४३६

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.. (१) श्री शारदाष्टक सुमिरत सारदा हुलसि हसि हंस चढ़ी, विधि साँ कहति पुनि साई थुनि ध्याऊँ मैं । ताल-तुक-हीन अंग-भंग छवि-चीन भई, कविता विचारी ताहि रुचि-रस प्याऊँ मैं । नंददास-देव-धनानँद-विहारी-सम, सुकवि बनावन की तुम्हें सुधि द्याऊँ में । सुनि रतनाकर की रचना रसीली रंच, ढीली परी वीनहिं सुरीली करि ल्याऊँ मैं ॥१॥