पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४३८

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स्रौन सुख हेत होति सरस सुधा की धार, माधुरी अपार सौ मृदुल मुसुकानि की । होति अनहोनी पुनि तामै मिठलौनी लहि, लोनी कृपा-कलित सलोनी अँखियानि की ॥४॥ बातनि की ललित लपेट कदली के फैट, अरथ कपूर भरपूर सरसत है। कहै रतनाकर सुकोस लेखिनी के सुचि, आखर को रोचन रुचिर दरसत है। रूरे रस-सिंधु-अवगाही मति सुक्ति माहि, उक्ति जुक्ति मुक्तिनि को पुंज परसत है । सारद-सुसीले मंदहास स्वाति-बारिद ते, जव सुख कारि कृपा-बारि वरसत है ॥ ५ ॥ रावरे अनुग्रह-प्रताप को प्रकास पाइ, वालमीकि - व्यास - जसचंद उजराए हैं। कहै रतनाकर त्यौँ बानी महारानी मात, कबि-मनि सूर तुलसी हूँ चमकाए हैं। अबिरल रावरे सुवा के मुख मंजुल ते, वेद भेद सकल अखेद जात गाए हैं। जिनके उचारन के हेत करि चेत चारु, चारि चतुरानन के आनन बनाए हैं ॥६॥