पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४३९

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मात सारदा के मुसकात मंजु आनन पै, कलित कृपा के चारु चाव बरसत हैं। कहै रतनाकर सुकवि प्रतिभा पै मनौ, मधुर सुधा से भूरि भाव सरसत हैं । सारी सेत ऊपर सुगंध कच कुंचित यौँ, छहरि छबीले मुरवानि परसत हैं। इंद्रनील-खचित कवित्तनि के दाम मनौ, रजत-पटी पै अभिराम दरसत हैं ॥७॥ सुनि सुनि भारती तिहारे सुगना के बोल, किन्नरी कलोल लोल चित्त है लुभाए हैं। कहै रतनाकर मृदुल माधुरी सौँ मोहि, वैसे ही कवित्त कहिबे कौं हुलसाए 11 अब तौ हमारौ मन राखतै बनेगी तोहि, भाषत वनगौ बर जापै मचलाए हैं। जौ पै हैं सपूत तौ तिहारेई बनाए मातु, जौपै हैं कपूत तौ तिहारे ही लड़ाए हैं ॥८॥