पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४४

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सम-जल-कन अति-अमल आनि अलकनि अधिकाने, मनु सिँगार के तार हास-मुकता मन-माने । सोऊ पिय-प्यारी-अनूप-पानिप सौं लाजै , है पानी च्चै परै पाय परसन के काजै ॥ ८२ ॥ आनन हूँ मैं कछु औरै सुषमा सरसाई, गौर-स्याम दुति माहिं अधिक आई अरुनाई। अंग अंग के सहित उमंग मनहुँ हलकन साँ, दोउ-घट के अनुराग प्रगट दीसत छलकन सौं॥ ८३ ॥ जानि थकित हित मानि ठानि बहु नेह-निहारे, आपुस में करि सैन बैन रचि अति रस-बोरे । मृदु मुसक्याति निहारि नैन संजुत-सुघराई, बिनय बिसाखा औ ललिता पग परसि सुनाई ॥ ८४ ॥ मनमानी है चुकी मानि मन-बात हमारी, सम मेटहु अब नैं पाँदि दोऊ पिय-प्यारी। मंद मंद सानंद पाट हम पकरि झुलाबैं , दोउनि सुख सरसात निरखि नैननि सियरावै ॥८५॥ सुनि हितूनि के मृदुल बैन बोरित हित रस मैं, नीठि नीठि रोकी मचकी जनु परि परबस मैं । परसि परसि पग पुहुमि पैंग ललिता ठहराई, दूरि करति ज्यौँ भक्ति चारु चित-चंचलताई ॥ ८६ ॥