पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४४०

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(२) श्रीगणेशाष्टक इंद्र रहैं ध्यावत मनावत मुनिंद्र रहैं, गावत कविंद्र गुन दिन-छनदा रहैं। कहै रतनाकर त्या सिद्धि चौर ढारति औ, आरति उतारति समृद्धि-प्रमदा रहैं । दै दै मुख मोदक बिनोद सौँ लड़ावत ही, मोद मढ़ी कमला उमा औ बरदा रहैं । चारु चतुरानन पंचानन षडानन हूँ, जोहत गजानन को आनन सदा रहैं ॥१॥ मंजु अवतंसनि पै गुंजरत भौर-भीर, मंद-मंद श्रीननि चलाइ बिचलावै है। कहै रतनाकर निहारि अध चाँपै चख, चूमिबे की संभु को अधर फरकावै है। कुंडलि सुंडिका पसारि अनचीते चट, कुंडल पड़ानन को छवै पुनि छपा है। दाबे मुख मोदक बिनोद मैं मगन इमि, गोद गिरिजा की गहे मोद उपजावै है ॥२॥