पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४४१

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ठेले कछु दंत सौं सकेले कछु सुंड माहि, मेले कछु आनन गजानन परात हैं। कहै रतनाकर जगत मैं न रंच कहूँ, भगत बिघन के प्रपंच दरसात हैं। धाइ धाइ पारत फनी के मुख-मंडल मैं, लाइ लाइ सेाऊ जीभ चट करि जात हैं। उत तो उमा के उर उठत अनेस इत, भेस देखि मुदित महेस मुसकात हैं ॥३॥ सुंड सौं लुकाइ औ दवाइ दंत दीरघ सौं, दुरित दुरूह दुख दारिद बिदारे देत । कहै रतनाकर विपत्ति फटकारै पूँकि, कुमति कुचार पै उछारि छार डारे देत ॥ करनी बिलोकि चतुरानन गजानन की, अंब सौं बिलखि यौँ उराहनौ पुकारे देत । तुमही बताओ कहाँ बिधन बिचारे जाहिँ, तीनों लोक माहि ओक उनकौं उजारे देत ॥४॥ सुमुख कहाइबौ सफल बक्रतुंड ही को, सुमिरत जाहि कौन बिपति बही नहीं। कहै रतनाकर त्यौं उदर उदार माहि, सकल समानी कला एकौ उबरी नहीं॥