पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४४३

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( ३) श्रीकृष्णाष्टक जाकी एक बूंद कौँ विरंचि विबुधेस सेस, सारद महेस है पपीहा तरसत हैं। कहै रतनाकर रुचिर रुचि जाकी पाइ, मुनि-मन-मोर मंजु मोद सरसत हैं। लहलही होति उर आनँद - लवंगलता, दुख दंद जासौं है जबासौ झरसत हैं। कामिनी सुदामिनी समेत घनस्याम साई, सुरस - समूह ब्रज - बीच बरसत हैं ॥१॥ लीन्या रोक जमुना-प्रबाह बाँसुरी के नाद, जाको जसबाद लोक सकल बखानेंगे। कहै रतनाकर प्रलै की घनधार रोकि, लीन्यौ ब्रज राखि सहसाखि साखि माने गे ।। उमगत सिंधु कि द्वारिका बसाई दिव्य, जुगजुग जाकी कवि कीरति बखानेंगे। इम तौ हमारी दसा दारुन बिलोकि नै कु, रोकि लैहो करुना प्रवाह तब जानैं गे ॥२॥