पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४४६

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पाएँ कहूँ ओक ना त्रिलोक माहिँ धावें फिरे, सुरति भुलाए भूरि भूख औ पिपासा की। कहै रतनाकर न इत उत चाहै नैंकु, चपल चलेई जात साधे सीध नासा की । राख्यौ ना बिरंचि हरि हरहूँ न सक्र रंच, बक्र गति चाहि चल चक्र के तमासा की। साप की कहै को मुख बाहिर न स्वासा भई, दुरित दुरासा भई दूरि दुरवासा की ॥ ८॥ करुना प्रभाव कल कोमल सुभाव-चारी, जन रखवारौ सदा दिवस त्रिजामा कौ । कहै रतनाकर कसकि पीर पावै उर, ध्यान हूँ परे पै दुख दीन नर बामा कौ ॥ याही हेत आखत को राखत विधान नाहि, पूजा माहि प्रीतम प्रबीन सत्यभामा को । पांडववधू को बच्यो भात सुधि आइ जात, छाइ जात नैननि पै तंदुल सुदामा कौ ॥९॥