पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४४७

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(४) गजेन्द्रमोक्षाष्टक रमत रमा के संग आनंद-उमंग भरे, अंग परे थहरि मतंग अवराधे पै। कहै रतनाकर बदन-दुति और भई, उदै छई छलकि दृगनि नेह-नाधे पै ॥ धाए उठि बार न उबारन मैं लाई रंच, इंचला हू चकित रही है बंग-साधे पै। आवत बितुंड की पुकार मग आधे मिली, लौटत मिल्यौ तौ पच्छिराज मग आधे पै॥१॥ संग के पुराने गज दिग्गज डराने सबै, ताने कान कुंजर सुरेस को चिघार यौ है । कहै रतनाकर त्याँ करि कमला के कॉपि, चाँपि चख पानिप कहूँ की कहूँ पारयौ है ॥ संकजुत दौरि पौरि खेलत गजानन हूँ, गोद गिरिजा की दुरि मौन मुख धारयौ है । एते माहि अातुर उमाहि हरि आइ धाइ, सुंड गहि बूड़त बितुंडहिँ उबारयौ है ॥२॥