पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४४८

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सुंड गहि आतुर उबार धरनी पै धारि, बिबस बिसारि काज सुर के समाज को। कहै रतनाकर निहारि करुना की कोर, बचन उचारि जो हरैया दुख-साज कौ ॥ अंशु पूरि दृगनि विलंब आपनाई लेखि, देखि देखि दीह छत दंतनि दराज का। पीत पट लै लै कै अंगौछत सरीर कर- कंजनि सौ पाँचत भुसुंड गजराज कौ ॥३॥ परत पुकार कान कानि करुना की प्रानि, सहित उदेग बेग-बिकल बिकाने से । कहै रतनाकर रमा हूँ कौँ बिहाइ धाइ, औचक ही आइ भरे भाइ सकुचाने से ॥ आतुर उबारि पुचकारि धरनी पै धारि, अमित अपार सम भभरि भुलाने से । फेरत भुसुंड पै कैंपत कर पुंडरीक, बिकल-बितुंड-मुंड हेरत हिराने से ॥४॥ संगवारे महत मतंगनि के संग सबै, निज निज प्रान लै पराने पुसकर सौं । कहै रतनाकर विचारौ बल हारौ तब, टेरि हरि पारयौ कल कंज गहि सर सौं॥