पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४४९

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पहुँच न पायौ पुनि वारि लौँ न जौ लौँ वह, तो लौ लियो लपकि उवारि हरवर सौं। एक सौं ललायौ चक्र एक सौ चलायौ गयौ, एक सौँ भुसुंड पुंडरीक एक कर साँ।।५।। देखती रमा जौ यह कानि करुना की कहूँ, भूलि जाती मान के विधान जे अभाए हैं। कहै रतनाकर पै ताकी हूँ न ताकी फाल, अतल उताल है इकाकी उठि धाए हैं। पच्छिराज-वेग को गुमान गारिबे को गुनि, औसर अनौसर पियादे पाय आए हैं। द्वै ही हाथ कीन्हें कान और अवतारनि मैं, चारौं हाथ बारन-उबारन लाए हैं ॥६॥

गुनि गज-भीर गयौ चीर कमला को तजि, है हरि अधीर पीर-उमग अथाह मैं । कहै रतनाकर चपल चक्र बाहि चले, बक्र ग्राह-निग्रह के अमित उछाह मैं ॥ पच्छीपति पौन चंचला सौं चख चंचल सौं, चित्त हूँ सौं चौगुने चपल चलि राह में । बारन उबारि दसा दारुन बिलोकि तासु, हुचकन लागे आप करुना-प्रवाह मैं ॥७॥