पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४५

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सुमुखि सुलोचनि भरी-भाय चहँ दिसि ते धाई, मानहुँ मन-थिर होत सकल सिधि निधि जुरि आई। सादर पुलकि पसीजि रीझि सो सुमन उठाए, उझकत झूलत मदन-बान लौँ जो महि पाए ॥ ८७ ॥ नैननि लाइ चढाइ सीस कोउ अति सुख पावति, चूमि कोऊ रस घूमि भूमि सुधि बुधि बिसरावति । रही सूघि औ ऊँघि एक द्वै सुमन मिलाए, तीन लोक फल चारि वर्ग सौँ मनहिँ हटाए ॥ ८८ ॥ राई लोन उतारि कोऊ कछु अधर हलावति, कोउ कनपटियनि चापि चारु अँगुरिनि चटकावति। लालन-कर निज करनि बीच करि कोउ सहरावति, कोउ प्यारी के पकरि पानि निज अंगनि लावति॥८९॥ उतरि परी दोऊ तुरंत अंतर-हित भीनी । सिमिटनि ति सँवारि सेज सज्जित पुनि कीनी। अति उमाह सौँ पकरि बाँह दोउनि बैठारयौ, लै कोमल पट परसि बदन सम-सलिल निबारयौ॥९॥ सुधा-स्वाद-सुख बाद-करन-हारे रस-भीने, सुचिता सहित सवारि धारि दौननि फल दीने । चुनि चुनि रुचि अनुसार दुहूँ दोऊनि खवाए, महा मोद मन मानि पानि-आनन-फल पाए ॥ ९१ ।