पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४५१

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(५) श्रीयमुनाष्टक मूरज-सुता की सुभ सुखना बखानै कौन, रौन-रस-रची साँची पुंज बरकत की। बवि-पद-छाके नैन चंचल चलाके मनौ, लीने सुघराई कंज खंज फरकत की। झलकति अंग तैं उमगि अनुराग-प्रभा, तातें सुभ स्याम-अंग रंग-ढरकत की। मरकत मनि त मरीचि कट्टै मानिक की, मानिक हैं मानहु मरीचि मरकत की ॥१॥ ऐसी कछु बानक बनावति बिलच्छन के, जासौं डरि जम को जमाति टरि देति है। कहै रतनाकर न माथ हुमसाइ सके, ताकै हाथ हाय गिरिनाथ धरि देनि है ।। जुग पतिनों को पति नीको रहि पावै नाहि, सारह हजार नारि भौन भरि देति है । जमुना-जवैया पेखि पातक पुकारि कहें, भैया वह न्हात ही कन्हैया करि देति है ॥२॥