पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४५३

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मज्जत विहंग हू जो तरल तरंगनि में, ताको है विहंगपति वाहन जुहार है। विचरै सिखंडी जमुना बनखंडनि जो, ताकैः पच्छ-मंडन कन्हैया सीस धार है ॥५॥ जाइ रतनाकर पै जम यौँ दुहाई देत, अज अखिलेस सेसनाग पै सुवैया की। देखा जागि जमुना कुभाय के हिलोरे आप, पाप-नाव बोरै मम पुर के जवैया की । विधि हूँ के राष की न राखै परवाह रंच, ऐसी भई सोख पाइ संगति कन्हैया की। राखी मरजाद पाप पुन्य की सु राखी गनै, साखी गनै वाप की न भाषी गनै भैया की ॥६॥ नीको हम, चित्रगुप्त कहत पुकारि जमराज सुनौ, गाफिल है न कु निज गौरव गवैयौ ना। कहै रतनाकर कहत मत पथ भगिनी कौँ निज पुर को दिखयौ ना ॥ ऐसौ कछु ऊधम मचाइ है पधारत ही, पापिनि कौँ पाइ है पछेरि फेरि दैयौ ना। जैयौ तुम आपु हाँ तिलक-हित ताकै कूल, भूलि जमुना का जमलोक काँ बुलैयौ ना ॥७॥