पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४५५

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(६) श्रीसुदामाष्टक जै जै महाराज जदुराज दुजराज एक, सुहृद सुदामा राजद्वार आज आए हैं । कहै रतनाकर प्रगट ही दरिद्र-रूप, फटही लँगोटी बाँधि बाध सौं लगाए हैं । छीनता की छाप दीनता की थाप धारे देह, लाठी के सहारै काठी नीठि ठहराए संकुचित कंध पै अधौटी सी कंधौटी किए, तापर सछिद्र छोटी लोटी लटकाए हैं ॥१॥ दीन हीन सुहृद सुदामा की अवाई सुनें, दीनबंधु दहलि दया सौं मया-पागे हैं। कहै रतनाकर सपदि अकुलाइ उठे, भाइ गुरु-गह के सनेह-जुत जागे हैं। पौरि दौरि देखि दृगनि अलेख दसा, धीर त्यागि औरहू बिसेष दुख-दागे हैं। ये तो करुना सौँ छकि छिन अगुवाने नाहि, जानि वे पिछाने नाहि पलटन लागे हैं ॥२॥ आइ