पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४५६

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आए दौरि पौरि लौँ सुदामा नाम स्याम सुनें, भुज भरि भैटि भए पूरन पुनै प्रनै । कहै रतनाकर पधारे बाँह धारे भौन, बेना उपरेना को डुलावत बनै बने । रुकमिनि धाई धारि झारी कर कंचन की, सीतल सुहाएँ जल पूरित छनै छनै । वै तो पाय ऍचत सकुचि चख नीर आनि, पीर जानि धावत ये और हूँ सनै सनै ॥३॥ ल्याइ मनि मंदिर बिठाइ पट चंदन कैं, आगें धरि धवल परात पूरि पाते सौं । कहै रतनाकर सुदामा को सँकोच मोचि, कछु बुलकारि बोल रुचि-रस-राते सौं॥ बेगि घनस्याम कृपा-दामिनि दिखाई आनि, ठानि यह रीति प्रीति-नीति के सुनाते सौं। एक पग जो लौँ रुकमिनि जल पारयौ सीत, तौ लौँ आप दूसरौ पखारयौ आँस ताते सौं ॥४॥ इत उत हेरि फेरि पीठि-पुटकी पै दीठि, भरि चुटकी लै उपहार विप्र-बामा को। कहै रतनाकर चटौ ज्यौं मुख मेलन त्यौँ, मेला मच्यौ मंजु रिद्धि सिद्धि के हँगामा का ॥