पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४५७

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यौं कहि निवारचौक बिसि विलोकि बंक, भीषमसुता को औ ससंक सत्यभामा का। आपने चने का अवै बदलौ चुकाए लेत, चपल चवाए लेत तंदुल सुदामा कौ ॥५॥ दीबै काज विप्र को बुलाई जदुराज जानि, हिय हुलसाई सुररान के बगर मैं । कहै रतनाकर उमगि रिद्धि सिद्धि चली, हौड़ करि दौरत दरेरत डगर मैं ॥ सौहे आनि पै न उकसौहैं पग रोकि सकी, बिबस बिचारी बेग-झाँक के झगर मैं । दमकी दिखाइ द्वारिका मैं हमकी जो फेरि, ठमकी सु ाइ कै सुदामा के नगर मैं ॥६॥ हेरत न नैं कु पौरिया के नम्र टेरत हूँ, कहत अबै ना सुर-सदन सिधैहैं हम । कहै रतनाकर सुघर घरनी त्यौँ आइ, पाइ गहि बोली चलौ संसय सिरैहैं हम ॥ वैभव निहारि निरधारि पुनि हेत बिष, बदत बिचारि सिद्धि केतिक कमैहैं हम । तंदुल दै बदलौ चने को तो चुकायौ कछु, संपति इतीक को प्रतीक कहाँ पैहे हम ॥७॥