पृष्ठ:रत्नाकर.djvu/४५८

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सेई सुभ संपति विपत्ति माहिँ गोई जऊ, जोई जदुपति-रति पूरति सदाही मैं । कहै रतनाकर पै संपति विपत्ति यह, जासौँ प्रभु-सुरति सिराति ममताही मैं ॥ तेरे कह द्वारिका गए सो तो भली ही भई, भुज भरि भै टे स्यामसुंदर उछाही मैं। पर पछिताव यहै होत कत तंदुल दै, हाय अनचाही एती बिपति बिसाही मैं ॥८॥